पंचायती राज संस्थाओं का सफ़रनामा

‘पंचायती राज सप्ताह’ के इस विशेष अंक में हम आपके लिए पूरे सप्ताह इन संस्थाओं से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियाँ लेकर हाज़िर रहेंगे। इसमें हम पंचायती राज संस्थाओं के शुरूआती सफ़र से लेकर वर्तमान में संस्थायें किस तरह से कार्य कर रही हैं, उनमें चुनौतियां क्या हैं एवं कौन से समाधान हो सकते हैं, सभी विषयों पर एक सीरीज़ के तहत चर्चा करेंगे। आशा करते हैं कि यह सीरीज़ आपको बेहद पसंद आएगी।

आज के इस अंक में हम मोटे तौर पर बात करेंगे कि आख़िर पंचायती राज संस्थाओं का यह सफ़र कैसे तय हुआ है। पंचायती राज संस्थान, भारत में स्थानीय स्वशासन की एक प्रणाली है जिसका अर्थ है, लोगों द्वारा निर्वाचित निकायों के माध्यम से स्थानीय मामलों का प्रबंधन करना।

पंचायती राज संस्थाओं का महत्व न केवल मौजूदा व्यवस्था में माना गया है बल्कि भारत की स्वतंत्रता से पूर्व लॉर्ड रिपन ने भी वर्ष 1882 में इन स्थानीय संस्थाओं को उनका अत्यंत आवश्यक लोकतांत्रिक ढाँचा प्रदान किया।

तो आईये इस अंक में पंचायती राज संस्थाओं के इसी सफ़र पर एक नज़र डालते हैं!

प्रथम चरण 

वर्ष 1957 में बलवंत राय मेहता समिति का गठन

समिति ने त्रि-स्तरीय पंचायती राज संस्थाओं का सुझाव दिया:

  1. ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत
  2. प्रखंड (ब्लॉक) स्तर पर पंचायत समिति
  3. ज़िला स्तर पर ज़िला परिषद

दूसरा चरण 

  • इन संस्थाओं की नींव 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान में रखी गयी।
  • साथ ही 1 नवंबर, 1959 को आंध्र प्रदेश में शुरूआत की गई।

तीसरा चरण 

  • वर्ष 1977 में अशोक मेहता समिति की नियुक्ति ने पंचायत राज की अवधारणाओं और रीतियों में नए दृष्टिकोण का सूत्रपात किया।
  • समिति ने द्विस्तरीय पंचायत राज संरचना की अनुशंसा की, जिसमें ज़िला परिषद और मंडल पंचायत शामिल थे।
  • योजना विशेषज्ञता के उपयोग और प्रशासनिक सहायता की सुनिश्चितता के लिये राज्य स्तर से नीचे ज़िले को विकेंद्रीकरण के प्रथम बिंदु के रूप में रखने की अनुशंसा की गई थी।
  • समिति की अनुशंसा के आधार पर कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों ने इस व्यवस्था को प्रभावी रूप से लागू किया गया।

चौथा चरण 

  • जी.वी.के राव समिति (1985) ने ज़िले को योजना की बुनियादी इकाई बनाने और नियमित चुनाव आयोजित कराने की सिफारिश की गई जबकि एल.एम. सिंघवी ने पंचायतों को सशक्त करने के लिये उन्हें संवैधानिक दर्जा प्रदान करने तथा अधिक वित्तीय संसाधन सौंपने की सिफारिश की।

पांचवा चरण :

  • 73वें और 74वें संविधान संशोधन को दिसंबर, 1992 में संसद द्वारा पारित कर दिया गया। इन संशोधनों के माध्यम से ग्रामीण और शहरी भारत में स्थानीय स्वशासन की नींव डाली गई।
  • 24 अप्रैल, 1993 को संविधान (73वाँ संशोधन) अधिनियम, 1992 और 1 जून, 1993 को संविधान (74वाँ संशोधन) अधिनियम, 1992 के रूप में ये कानून प्रवर्तित हुए। तो इस तरह से पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक स्थिति प्रदान की गई और उन्हें देश में ग्रामीण विकास का कार्य सौंपा गया।

यदि यह कहा जाए की पंचायती राज संस्थाओं को उनकी मूल पहचान एक सरकार के रूप में 73वें एवं 74वें संवैधानिक संशोधन के बाद मिली, तो इसमें कतई अतिशयोक्ति न होगी। हालांकि अभी भी इन संस्थाओं को इनकी पूर्णता हासिल करना अभी भी बाक़ी है, चलिये उन पर अपने अगले अंक में बात करेंगे!

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