क्या आंगनवाड़ी कार्यकर्ता बदलाव के लिए तैयार हैं?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को लागू हुए दो साल पूरे हो चुके हैं और इन दो वर्षों में यह नीति अति अधिक वाद-विवाद और चर्चाओं का विषय रह चुकी है। इस शिक्षा नीति में काफ़ी सकारात्मक बदलावों के बारे में जिक्र किया गया है, जैसे बच्चों को शिक्षा के साथ-साथ वोकेशनल शिक्षा से भी जोड़ना, ताकि बच्चे भविष्य में अपनी क्षमताओं की पहचान करके एक बेहतर भविष्य की तरफ बढ़ सके। इसी शिक्षा नीति के तहत एक बहुत बड़े बदलाव की बात की गयी है जिसके अंतर्गत प्री-स्कूल एडुकेशन को प्राथमिक शिक्षा से जोड़ा जाएगा और आंगनवाड़ी केन्द्रों के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा में सम्मिलित किया जाएगा

अब सवाल यह है कि पहले से ही आंगनवाड़ी केन्द्रों में सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण 2.0 की सेवाएँ दे रही कार्यकर्ता इस बदलाव को अपने कार्यशैली में कैसे सम्मिलित करेंगी?

इसके तहत कुछ राज्यों में आंगनवाड़ी केन्द्रों तथा कार्यकर्ता को प्राथमिक विद्यालयों में विलय करने की प्रक्रिया शुरू भी हो चुकी है। मतलब इन राज्यों में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को एक अध्यापक के तौर पर भी विद्यालयों में अपनी सेवाएं देनी होंगी।

मैं यहाँ अपने ज़मीनी अनुभव में उभरे कुछ उदाहरणों के माध्यम से कुछ चुनौतियों पर प्रकाश डालने की कोशिश कर रहा हूँ जो हमें इस बात पर सोचने के लिए मजबूर करेंगी की क्या आंगनवाड़ी कार्यकर्ता वाकई इस तरह के बदलावों के लिए तैयार हैं?

मध्य प्रदेश के संदर्भ में कहूँ तो मैंने राज्य से लेकर आंगनबाड़ी स्तर तक कुछ चीजों का समझने की कोशिश की जिसे मैं आपके साथ साझा कर रहा हूँ:

1) राज्य स्तर के कुछ अधिकारीयों से बात करने पर मालूम चला की नयी शिक्षा नीति के कार्यान्वयन को लेकर उनके मन में कुछ संशय हैं। जैसे किस विभाग द्वारा आंगनवाड़ी पर प्री-प्राइमरी की कक्षाएं संचालित की जाएँगी? क्या इसके लिए अलग से शिक्षकों की नियुक्तियां होंगी या वर्तमान में काम कर रहीं कार्यकर्ता ही इनका संचालन करेगी? यदि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता ही इनका संचालन करेगीं तो वे इस व्यवस्था में कब और कैसे शिफ्ट होंगी? उन्हें इस सिस्टम में आने के लिए प्रशिक्षण कब और कैसे दिया जायेगा?

2) जब इस नीति के क्रियान्वयन के लिए फंड से सम्बंधित जानकारी लेने की कोशिश की गई तो उसके बारे में भी उन्हें कोई पुख्ता सूचना नहीं थी। इससे संदेह पैदा होता है की अभी तक शिक्षा विभाग और महिला एवं बाल विकास विभाग के बीच में ही इसके क्रियान्वयन को लेकर कई तरह के संशय है।

3) हमने अपने शोध में पाया है की सरकार द्वारा जब आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं से डाटा अथवा जानकारी मांगी जाती है, तो कई बार इस प्रक्रिया में उन्हें कई मुश्किलें आती हैं। जैसे कोविड-19 के समय आंगनवाड़ियों को एक एप्प के माध्यम से कोविड से जुड़े लोगों की घर-घर जाकर पहचान करनी है। लेकिन इसके लिए उन्हें कोई उचित प्रशिक्षण नहीं दिया गया था, केवल लिंक साझा करके उन्हें कहा गया की उन्हें डाटा इकठ्ठा करके भेजना है। लिहाज़ा, इसमें उन्हें काफी मुश्किलें पेश आयीं।

इसी प्रकार 2021 में जारी हुए पोषण ट्रैकर एप्लीकेशन, जो अन्य बातों के साथ-साथ बच्चों के वजन और ऊंचाई, आंगनवाड़ी केंद्रों के उद्घाटन, टेक होम राशन के वितरण और आंगनवाड़ी में प्री-स्कूल शिक्षा के लिए बच्चों की उपस्थिति पर डेटा कैप्चर करता है, को लेकर भी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता सहज रूप से कार्य नहीं कर पा रही थीं।

तो अब सवाल यह उठता है कि बिना प्रशिक्षण जब ज़मीनी कार्यकर्ता ही अपना काम सही तरीके से करने में सक्षम नहीं होंगी तो ऐसे में लाभार्थियों को बेहतर सेवाएं कैसे मिल पाएंगी?

अतः सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में ठोस बदलावों के लिए नीति निर्माण एवं क्रियान्वयन को लेकर सोचना निःसंदेह एक स्वागत योग्य और सराहनीय निर्णय हैं। लेकिन साथ ही सरकार को यह सोचने की भी आवश्यकता है कि जो लोग इस नयी व्यवस्था में शामिल होंगे क्या उन्हें इस कार्य के सशक्त और समर्थ बनाने में भी उतना ही श्रम और विचार उपयोग किया जा रहा है या नहीं?

यह केवल एक उदाहरण मात्र है जो इस बात पर प्रकाश डालता है कि जो ज़मीनी कार्यकर्ता नागरिकों को सेवाएं देने के लिए जवाबदेह हैं, उन्हें समय-समय पर साधन और प्रशिक्षण की आवश्यकता रहती है। हर विभाग के ज़मीनी कार्यकर्ताओं की क्षमता उत्सर्जन के लिए संस्थागत व्यवस्था सुनिश्चित करना सरकार की ज़िम्मेदारी है। और हम नागरिकों की ज़िम्मेदारी सरकार को अपने इस कर्तव्य के लिए जवाबदेह ठहरना हैं।

यह लेख अकाउंटबिलिटी इनिशिएटिव वेबसाइट में प्रकाशित किया गया है।